इतने तो मजबूर नहीं तुम

शाम की तन्हाई,
बहुत कुछ,
सोचने को, मजबूर कर देते हैं।

ढ़ेर सारे सवाल जेहन में आता है
कुछ सवालों को सुलझा जाती हैं
कुछ का रास्ता बता जाती हैं ,
तो कुछ को वक्त के आधीन छोड़ जाती हैं।

पर खुद से सवाल पूछ जाती हैं,
इतने तो मजबूर नहीं हो तुम
वक्त के धारा में,जो होना हैं
वह होगा ही
क्या तुम रोक पाओगे उन्हें।

बीती बातों को मत टटोला करो
जितना हो सकें, इससे बाहर निकलो।
फिर भी ,कुछ सवालों में उलझ जाता हूं,
पर दिल से एक आवाज़ आती है,

अपने को स्थिर रखो,
ना करो भरोसा किसी पर
नाकाम रहो,पर जीवों अपने शर्त पर
किसी के, जी-हजूरी के, मजबूर नहीं तुम।

शाम ढलते ही,
परमात्मा की याद दिला जाता हैं ,
जो, मुझसे कहते हैं-

"याद ,मुझे भी ,कर ना पाओ
इतना तो ,मजबूर नहीं तुम,
अपने दिल में, झाकोग तो
पाओगे हम दूर नहीं है।

ये बात, हमें ,सकुन दे जाता
खुद में ही ,आस जगाता
अपने कार्य में,चित् लगाओ,
चिन्ता की कोई बात नहीं है।




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